Homeछिपाए रैदास बाहर आए | Chhipaye Raidas Bahar Aaye ₹90 Product Description लेखक- डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह Weight- 90g Total Page- 62
छिपाए रैदास बाहर आए | Chhipaye Raidas Bahar Aaye ₹90 Product Description लेखक- डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह Weight- 90g Total Page- 62

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Rajendra Prasad Singh

छिपाए रैदास बाहर आए (Hindi Edition)

Chipaye Raidass Bahar Aaye (छिपाए रैदास बाहर आए)

₹90.00

प्रकाशन:- सम्यक प्रकाशन

पृष्ठ संख्या:- 64

पेपर बैक

Tags: chipaye raidas bahar aaye, छिपाए रैदास बाहर

लेखक- डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह

Weight- 90g

Total Page- 62


कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों पर लेखकों या उनकी कृतियों का मूल्यांकन किया गया है। सिग्मंड फ्रायड के सिद्धांतों पर भी लेखकों या उनकी कृतियों का मूल्यांकन किया गया है। लेकिन गौतम बुद्ध के सिद्धांतों पर लेखकों या उनकी कृतियों का मूल्यांकन नहीं किया गया है, जबकि गौतम बुद्ध के कार्य - कारण सिद्धांत पर इतिहास ने अपने आप में आमूल - चूल परिवर्तन कर लिया है।


बुद्धिज्म के सिद्धांतों पर लेखकों या उनकी कृतियों का मूल्यांकन करने की जरूरत है वरना बुद्ध, कबीर और रैदास वैष्णव बने रहेंगे। पूर्व जन्म में ब्राह्मण कहकर रैदास की जाति का ब्राह्मणीकरण किया गया। रामानंद को गुरु बताकर उनके ज्ञान का ब्राह्मणीकरण किया गया तथा चमड़े के नीचे जनेऊ दिखाकर उनके शरीर का ब्राह्मणीकरण किया गया। अनेक आलोचकों ने संत रैदास का वैष्णवीकरण भी किया है और वैष्णवी औजारों से उनका मूल्यांकन भी किया है। कारण कि हिंदी में बुद्धिज्म की आलोचना - पद्धति का अभाव है।


रैदास से जुड़ी अनेक किंवदंतियां फैलाई गई हैं। कहने को तो ये किंवदंतियां हवा - हवाई हैं। लेकिन इनकी चपेट में बड़े - बड़े विचारक भी आ गए हैं। सिंहासन से उठकर मूर्ति का रैदास की गोद में आना किंवदंती की चपेट में मध्यकाल के तेज - तर्रार संत पलटू दास आ गए हैं। जल में शालिग्राम तैराने की किंवदंती की चपेट में प्रख्यात दलित कवि बिहारीलाल हरित आ गए हैं और पारस वाली किंवदंती की चपेट में प्रमुख छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आ गए हैं। किंवदंतियां दूर तक मार करती हैं। इसे मामूली समझकर टालना खतरे से खाली नहीं है।


इतना ही नहीं, रैदास की बानियों के शब्दों का बड़े पैमाने पर तत्समीकरण भी हुआ है। कबीर ने अपनी कविताओं में 2% से भी कम संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है। इसी के बलबूते वे हिंदी साहित्य में वाणी के डिक्टेटर हैं। फिर बेगमपुर के आर्किटेक्ट रैदास की बानी में इतने बड़े पैमाने पर संस्कृत के शब्द कहाँ से आए, जबकि कबीर और रैदास दोनों समकालीन थे, एक ही शहर के थे और दोनों में आपसी संवाद भी हुआ करता था। ऐसी बातों को लेकर " छिपाए रैदास बाहर आए " नामक यह पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।



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